Friday, March 30, 2012

Maa

क्या शिशु को जन्मने की अपराधिनी है माँ?
यदि नहीं, तो क्यूँ सिर्फ माँ का ही उत्तरदायित्व है,
शिशु का पालन-पोषण करने का?
शिशु के तनिक क्रंदन से, माँ विचलित हो जाती है.
सहसा उसे अपने आँचल में छिपा लेती है,
दुलारती है, पुचकारती है,
साड़ी ममता उस पर न्योछावर कर देती है.
इतना करने पर भी जब शिशु शांत नहीं होता तो
पति अपनी पत्नी को डांटते हुए अंदाज़ में कहता है की
क्यूँ शिशु को चुप नहीं कराती?
क्या पिता का कुछ कर्त्तव्य नहीं?
क्यूँ वह अलग को खड़ा हो जाता है?
क्यूँ वह अपनी पत्नी पर हक जमता है चिल्लाने का?
जबकि पत्नी को यह अधिकार नहीं की वह पति से कुछ कह पाए.
क्यूंकि पति उसका तारणहार है? उसका स्वामी है?
वह गृहस्थी चलाने के लिए कमाता है?
वह सारा दिन बहार परिश्रम करता है, इसलिए थक जाता है?
इसलिए वह शिशु को शांत करने में,
उसकी लंगोटी बदलने में असमर्थ होता है?
लेकिन क्या कभी वह यह जानने की जिज्ञासा रखता है की
उसकी पत्नी गृह में शिशु के पालन-पोषण के साथ,
ग्रास्थी के कार्य कैसे करती होगी?
क्या वह पुरे दिन इनके क्रंदन से परेशान न होती होगी?
पति बहार काम कर, पैसे कमाकर अपने आपको तीसमारखान समझता है.
तो पत्नी, जो गृह कार्यों के साथ-२ नौकरी भी करती है,
फिर भी, अपने पति द्वारा उसके पैंरों की जुटी ही समझी जाती है.
क्यूँ? इसलिए क्यूंकि हमारा समाज पुरुष-प्रधान है.
जिसमें सिर्फ और सिर्फ पुरुषों को ही प्रधानता दी जाती है.
"लेडीज़ फर्स्ट" का नारा तो सिर्फ रेलवे टिकट खरीदने में ही काम आता है.
पति-पत्नी साईकिल के दो पहिये की भांति हैं.
जिस तरह, एक पहिये की साईकिल, किसी काम की नहीं होती,
उसी तरह,पत्नी बिना पति भी किसी काम का नहीं होता.
जीवन की गाड़ी पटरी पर निर्बाध गति से तभी दौड़ेगी,
जब दोनों में अनकहा सामंजस्य हो.
दोनों एक-दूसरे की भावनाएं, एहसास से ही अनुभूत करें.
अग्नि को साक्षी मान कर जब सात वचन लिए जाते हैं.
तो शायद उनका सीधे अर्थों में मतलब यही होता है की
एक-दूसरे की भावनाओं को सम्मान दें.
तो उन्हीं वचनों को आत्मसात करते हुए,
परस्पर सहयोगी बनते हुए, जीवन का आनंद प्राप्त करें,
जिससे जीवन रूपी गाड़ी, तीव्र गति से प्रगति-पथ पर दौड़ती रहे.

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