Tuesday, January 4, 2011
हमें झेलने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद्...
कभी हंसो भी तो.
कभी हंसो भी तो.
सब हँसते हैं.
सूर्य हँसता है, चाँद हँसता है, तारे हँसते हैं.
पेड़ हँसते हैं, पौधे हँसते हैं, नदियाँ हंसती हैं.
पक्षी हँसते हैं, फूल हँसते हैं, सरोवर हँसते हैं.
सब हँसते हैं,
मनुष्य को छोरकर.
मनुष्य रोता है.
सदा रोता है.
सारी प्रकृति प्रसन्न है, नाच रही है.
गुन-गुना रही है, झूम रही है.
केवल मनुष्य उदास है, निराश है. हताश है, ग़मगीन है.
क्यों????
क्यूंकि कामना पूरी नहीं होती.
आगे-आगे बरती जाती है.
कामना आज-तक कभी किसी की पूरी हुई ही नहीं.
सदा अधूरी ही रहती है,
अर्थी उठ जाती है, मृत्यु की नदी में उतर जाता है,
परन्तु, कामना साथ ही जाती है.
कामना सुखी नहीं होने देती.
कामना प्रशन्न नहीं होने देती. कामना हंसने नहीं देती.
तो क्या करे???
संतोष करो.
स्वीकार करो.
कहो कि जो कुछ परमात्मा ने दिया है-
बहुत दिया है.
मेरी जरुरत से ज्यादा दिया है.
कहीं तो ठहरना होगा.
कहीं तो रुकना होगा.
कहीं तो "बस" कहना होगा.
संतोष करके तो देखो.
कभी जीवन में संदोष के छन भी आने दो.
धन्यवाद् का स्वर भी उठने दो. तृप्ति की वंशी भी बजने दो.
कभी हंसो भी तो.