Friday, March 30, 2012

मैं अर्थात समाज की प्रत्येक लड़की,
चाहे वाह गरीब की हो या अमीर की,
किसी की आँखों का तारा,
किसी की राजदुलारी, लाडली बिटिया, किसी की भगिनी,
इतने रिश्ते निभाने के बाद, तीसरा रिश्ता अर्थात दांपत्य जीवन निभाने के लिए,
किसी की भार्या बनने के लिए,
किसी प्रदर्शनी की खुबसूरत-सी वस्तु बन जाउंगी.
माता-पिता (विक्रेता) अपनी प्रिय वस्तु को,
सुयोग्य हांथों में (क्रेता) सौपने के लिए चिंतित होंगे.
वे सुयोग्य स्वामी (क्रेता) को खोजने का भरसक प्यास करेंगे.
काफी प्रयत्न के बाद एक महानुभाव (क्रेता),
माता-पिता (विक्रेता) से वस्तु (बेटी) के गुणों का बखान सुनकर,
प्रथम द्रष्टाया वस्तु (बेटी) को प्रदर्शनी का एक अंग मानते हुए,
उसको देखने के लिए सहमती व्यक्त करता है.
विक्रेता अपनी प्रिय वस्तु को झाड-पोंछ कर, नया कवर चढ़ाकर,
प्रदर्शनी की एक खुबसूरत एवं मनमोहक वस्तु बना देता है.
यहाँ विक्रेता की स्थिति तनिक भिन्न होती है.
वाह काफी दयनीय अवस्था में होता है.
अपनी प्रिय एवं अनमोल वस्तु देकर भी उसके हाथ कुछ नहीं आता बल्कि
अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है एक भय की
क्या मेरी प्रिय वस्तु सुयोग्य हाथों को प्राप्त हुई है अथवा नहीं?
वाह अपनी अमूल्य वस्तु देकर भी क्रेता के प्रति नतमस्तक होता है.
क्रेता पक्ष इस सौदेबाजी में मज़बूत पक्ष होता है.
वह सिर्फ वस्तु प्राप्त करता है, उसका कोई मोल भी नहीं देता, फिर भी,
एहसान के साथ गर्व से सिर ऊँचा कर समाज में सीना तानकर चलता है.
एक बेटी, जो विवाह से पूर्व तक हमेशा अपने पिता एवं भाई के संरक्षण में रहती है,
सहसा अपने परिज़नों द्वारा परित्यक्त होकर किसी अनजान व्यक्ति के हाथों सौप दी जाती है.
बेटी पूछती है अपने परिज़नों से - "ऐसा क्यूँ?"
तो परिज़ं कहते हैं - "ये दुनिया का दस्तूर है.
ये पूर्वजों की विरासत है.
जिसे हम आपके माध्यम से इस परंपरा को आगे बड़ा रहे हैं और फिर आप,
अपने बच्चों के माध्यम से इस परंपरा को आगे ब्दाइयेगा.
क्यूंकि बेटियां तो परायी हैं, बेटियां तो परायी हैं.

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